
90 दिन की मेहनत, कमाई मामूली
सुल्तानपुर।मिट्टी के दीया बनने की कहानी जितनी दिलचस्प है, उतनी ही दर्दभरी है इसे बनाने वालों की दास्तां। 90 दिन की मेहनत लगती है और कमाई मामूली सी। मिट्टी से बना दीया सिर्फ दीपावली पर रोशनी का प्रतीक ही नहीं है, इसका एक अर्थशास्त्र भी है।
कई घरों की रोजीरोटी इसकी लौ की चमक पर टिकी है। हालांकि डेढ़ महीने की मेहनत के बाद भी प्रति मजदूर 4000 हजार रुपये भी हाथ नहीं आते। यानी नब्बे रुपये की दिहाड़ी भी नहीं बनतीसुल्तानपुर जिले के पलटन बाजार मोहल्ले में कुम्हारों के दर्जन भर परिवार मिट्टी से दीये और अन्य चीजें बनाते हैं।

चलते चाक पर हाथों के हुनर से ये मिट्टी के लोंदे से कई तरह के दीये, करवा, झकरी, गुल्लक और घड़े को मनचाहा आकार देते हैं। इन परिवारों को दिवाली से काफी उम्मीद रहती है। वैसे करवाचौथ और अहोई अष्टमी,दीवाली,और व्यवसाय को लेकर पर भी मिट्टी के बर्तनों की मांग होती है।

यह है दीये का अर्थशास्त्र,श्रम का हिसाब
दीये बनाने में इस सेक्टर की राम प्यारी का परिवार भी जुटा है। उनके अनुसार इसके लिए डेढ़ महीने की तैयारी और मेहनत के बाद दीये बनते हैं। दो सौ फुट मिट्टी (एक छोटा ट्रक) से दीये बनाने के लिए चार सदस्यों का पूरा परिवार इसमें लगता है।
मिट्टी खरीदने के बाद उसे तैयार करने में 15 से 20 दिन लगते हैं। सबसे पहले मिट्टी को छानना होता है। फिर इसे भिगोया जाता है। इसके लिए अलग टब काम में लाया जाता है। फिर इस मिट्टी के लौंदे बनाकर चाक से दीये और मिट्टी के बर्तन बनाते हैं।
दीये के इस कारोबार के रास्ते में चीनी लड़ियां ही नहीं और भी कई दिक्कते हैं। दीये और मिट्टी के बर्तन बनाते वक्त अगर अचानक बारिश आ जाती है तो सारी मेहनत और माल बेकार हो जाता है। इससे काफी नुकसान होता है।